पाप मुक्ति का विकल्प ही पाप करने का प्रेरणा स्रोत है।
मनुष्य पाप कर
अपने पाप का घड़ा भरता रहा !
कभी अपने पाप को
छलका दिया नदियों के अन्तस्थल मे
नदियां मलिन हो गयी!
कुछ पाप उसने बो दिये
धरा में धरा बंजर हो गई!
अपने कुछ पाप उसने
ब्राह्मणों को दान कर दिया
वो लोभी कहलाने लगे..!
जो बचा खुचा पाप था
वह आया असभ्य लोगों के हिस्से
वो अछूत हो गये…!
और मनुष्य
अपने पापों को
दान कर हो गया पाप मुक्त
पुनः पाप करने के लिये।
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कविता – 2
एक उम्र बाद जब मैं
तजुर्बात के दरीचे में बैठकर
जिदंगी के ताप को महसूस करती हूं,
मेरी डबडबाई आंखों में
धधकते हुए ख्वाहिशों के कितने ही
जंगल डूब जाते हैं!

इन्ही जगलों के एक छोर से लिपटा
मेरा दुशाला सुलगने लगता है काश की आंच में।
और मेंरे अंतस में जमी हुई
वेदना की सिल्लियां पिघलकर टूटने लगती है,,
मैं शून्य की नीरवता में गोते लगाती हूं..!
कहि कुछ अधूरापन सा खटकने लगता है आंखो में…।
मैं स्मृति की दीवार पर टंगे कुम्हलाए हुए
बूढ़े दिनों को दफ़न कर देती हूं अतीत में
और वर्तमान की दीवार में संभावनाओं से
भरापूरा एक नया दिन उकेर देती हूं फिर दोहराने को..!
सोचती हूं कि क्या है ये ज़िंदगी..!
पलछिन मेरी आंखो के सामने
कितने ही सूरज का उग आना,,, और फ़िर धीरे धीरे ढल जाना
हर रात चांद का टिप्पा लगाना और फिर चुपके से
दबे पांव चले जाना..!
और मेरा चुप्पियों की नदी में अपनी
मृत आशाओं की पूर्णाहुति कर देना किसी और जन्म के लिए,
और तय करना सूरज से चांद तक का सफ़र
और फ़िर चांद से सूरज तक का सफर
बीच बीच उल्कापिंडों की अंधाधुंध बारिशे पथ का भटकाव..!
और सोचना क्या यही है जिन्दगी ??
हां यही तो है सबकी अपनी अपनी जिदंगी।
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कविता – 3
अनन्त कल्पनाओं के
संदलवनों में
किसी कस्यमूर्ति सी ठिठकी मैं
मन की नदी में गोते लगा
रात की दहलीज पर
रिश्तों की कितनी ही गिरहें
खोल प्रेम को टोहती हूँ.!
कभी प्रेम में शून्यता तलाशती हूँ
कभी शून्य में प्रेम..!
कभी गुरुत्वाकर्षण में ‘प्रेम’
और कभी प्रेम में परिकल्पना
गुरुत्वाकर्षण की..और कभी
प्रेम में जीवन की टोह
कभी जीवन में प्रेम की कल्पना ..!
सृष्टि की विहंगमता में गुम मैं
विशाल महासागरीय जलराशि में नही
एक बूंद में समाहित पाती हूँ प्रेम को..!
जिसमे अटकी है जीव की प्यास..
मैंने फूलों के काँधे पर देखे है
तितलियों के आसूं..
तितलियाँ न फूलों की प्रेमिकाएँ है ..
हाँ पर फूलों के पास कोई
गुरुत्वाकर्षण बल नही होता ..!
उनके हृदय में प्रवाहित है
युगों युगों से अनंत प्रेम..!
कभी बहती नदी को देख
जीव मे प्रवाहित पाती हूँ
प्रेम को जल सा..!
प्रेम स्वयं को शून्य में समाहित कर
खोलता रहा कल्पनाओं का
अनन्त ब्रह्मांड और हम ताउम्र ..!
शून्य को इकाई की परिधि में बांध
भटकते रहे अनंत में प्रेम की चाह में..!
प्रेम अब तपस्वी हो ध्यानमग्न है.
रात्रि की कन्दराओं में..!
इंद्रधनुषी रंगों को परावर्तित कर
श्वेत हो जाने को
प्रेम में प्रेम को त्याग बस
प्रेम हो जाने को ..!
स्वयं को शून्य में समाहित कर
शून्य से मिल प्रेम हो जाने को..!
“स्वयं को शून्य में समाहित कर शून्य हो जाना ही प्रेम हो जाना है”
लेखिका : अदिति सिंह ‘पवित्रा’
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