इतना कट चुके हैं
पहाड़, पेड़ और गांव
सड़क के लिए
बस कटने को बची है
बूढ़ी दादी के पहाड़ी-चूल्हे की दीवारें
चूल्हा जिसमें वो रोज
शामों-सुब्ह पकाती है
शहर जा चुके बेटे की
वापसी की उम्मीदें…

2. मेरे गाँव के घरों की छतों पर मुंडेर नहीं है ~ Himank

मेरे गाँव के घरों की छतों पर मुंडेर नहीं है
वहाँ की छतें ढलाव के साथ
समतल काले पत्थरों से बनी हैं
इसलिए जब बारिश होती है
तो वो बरसात का पानी भी नहीं रोक पाती !
वो छत, शहर के छतों के विपरीत है
वो टैंकर के सहारे पानी नहीं देती
बल्कि मेरे गाँव के घरों की छत
हर बारिश पर टपकती है
वो बूंदे, जिनको समेटने के लिए
मेरी दादी एक गोलनुमा पतीला रखती है
ठीक उस टपकने वाली छत के नीचे
पर कभी कभी वो छत बिन बताये
कहीं से भी टपक जाती है
कभी उस सिलबट्टे के ऊपर
जिस पर दादी लूण(नमक)पिसती है
तो कभी हमारे चूल्हे के ऊपर
जिस पर दादी रोटी सेंकती है़ं
तो कभी उस छज़्जे पर
जहाँ माँ, गेहूँ सुखाने डालती है
उस छत से टपकता पानी
ओंस की बूदों की तरह लगता हैं
जो हमारी डेहरी से होकर
गूल के सहारे
खेतों में समा जाता है
फसलों को अंदरूनी नमी देने के लिए !
वो छतें बस टपकती रहती है
एक संगीत के संग
वो टप टप की आवाजें
कानों में गूंजती है
एक निरंतरता के संग
मानों कहीं दूर पहाड़ी के बीच
कोई ढोल बज रहा हो !
हाँ मेरी गाँव की घरों की छतोंं पर मु़ंडेर नहीं है
वो बरसात का पानी भी नहीं रोक पाती !
पर वो फिर भी हर बारिश में टपकती है!
Writer : Himank (Mayank Aswal)